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असम सरकार का ‘शूट एट साइट’ आदेश और हिंदू त्योहारों की सुरक्षा

- डॉ. मयंक चतुर्वेदी

भय बिनु होइ न प्रीति। गोस्वामी तुलसीदास की यह चौपाई केवल अध्यात्म का संदेश नहीं, बल्कि शासन और व्यवस्था के लिए भी गहरी सीख है। यही कारण है कि असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने दुर्गा पूजा से ठीक पहले धुबरी जिले में शूट एट साइट का आदेश देकर स्पष्ट संकेत दिया कि अब त्योहारों की आड़ में साम्प्रदायिक हिंसा की कोई गुंजाइश नहीं बचेगी। इस आदेश ने पूरे देश में हलचल मचा दी है, क्योंकि यह शायद पहली बार है जब किसी हिंदू पर्व की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए इतनी कठोर व्यवस्था लागू की गई है।

सवाल यह भी उठ रहा है कि आखिर असम सरकार को इतना बड़ा और अभूतपूर्व फैसला लेने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या यह आदेश केवल प्रशासनिक मजबूरी थी या फिर इसके पीछे एक व्यापक सामाजिक और राजनीतिक संदेश छुपा है? और सबसे अहम, क्या यह कदम वहां अल्पसंख्यक बन चुके हिंदुओं के लिए एक सुरक्षा कवच है?

धुबरी जिले की हकीकत इस आदेश की पृष्ठभूमि को समझने में मदद करती है। वर्ष 1951 में यहाँ हिंदू आबादी 43.5 प्रतिशत थी लेकिन समय के साथ यह घटती गई और 2011 की जनगणना तक केवल 19.92 प्रतिशत रह गई। वहीं, मुस्लिम आबादी 79.67 प्रतिशत तक पहुंच गई। यानी जो इलाका कभी हिंदुओं का गढ़ माना जाता था, वहां अब वे अल्पसंख्यक बन चुके हैं। कई अध्ययनों के मुताबिक यह परिवर्तन केवल उच्च जन्मदर का परिणाम नहीं, बल्कि बांग्लादेश से निरंतर हो रही घुसपैठ का असर भी है। यही वजह है कि धुबरी अवैध प्रवासियों के खिलाफ अभियान का सबसे बड़ा केंद्र बन गया है।

यही नहीं, जून 2025 में धुबरी का एक हनुमान मंदिर उस समय सुर्खियों में आया जब उसमें अज्ञात लोगों ने पशु मांस के टुकड़े फेंक दिए। घटना के बाद बाजार बंद हो गया, पथराव हुआ और सांप्रदायिक तनाव भड़क उठा। इसके कुछ ही सप्ताह बाद अतिक्रमण हटाने गई सरकारी टीम पर भीड़ ने हमला कर दिया, जिसमें कई पुलिसकर्मी और अधिकारी घायल हुए। इन घटनाओं ने साफ कर दिया कि यह जिला बेहद संवेदनशील है और किसी भी धार्मिक अवसर पर यहाँ हालात बिगड़ सकते हैं।

इसी संदर्भ में मुख्यमंत्री हिमंता सरमा ने शूट एट साइट का आदेश जारी किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह आदेश पूरे असम पर लागू नहीं है, बल्कि केवल धुबरी के लिए है। लेकिन संदेश पूरे राज्य और देश तक गया कि त्योहारों की शांति बिगाड़ने की कोशिश करने वालों को अब बख्शा नहीं जाएगा।

यह कदम उस व्यापक पैटर्न का हिस्सा है, जो पिछले कुछ वर्षों में देशभर में उभरता दिखाई दे रहा है। हिंदू त्योहारों पर हिंसा की घटनाएँ लगातार सामने आ रही हैं। वर्ष 2022 में हनुमान जयंती और रामनवमी की शोभा यात्राओं के दौरान दंगे भड़के। 2023 में भी यही सिलसिला जारी रहा। 2024 की बात करें तो सरस्वती पूजा विसर्जन के दौरान सबसे ज्यादा हिंसक घटनाएँ हुईं। राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के बाद भी चार बड़ी हिंसक वारदातें दर्ज हुईं। गणेश उत्सव में भी चार बार तनाव की खबरें आईं और रामनवमी पर तीन बार दंगे हुए। सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म की रिपोर्ट बताती है कि 2024 में कुल 59 साम्प्रदायिक तनाव की घटनाएँ हुईं, जिनमें से 26 सीधे-सीधे त्योहारों से जुड़ी थीं।

ताजा घटनाएँ इस पैटर्न को और पुख्ता करती हैं। गुजरात के वडोदरा में गणेशोत्सव की शोभायात्रा पर अंडे फेंके गए। उत्तर प्रदेश के बहराइच में गणपति की शोभायात्रा पर पटाखे फेंके गए। दोनों घटनाओं ने श्रद्धालुओं की भावनाएँ आहत कीं और तनाव पैदा किया। जब त्योहारों पर बार-बार इस तरह की हरकतें हों तो यह मानना कठिन नहीं कि इन्हें साजिशन अंजाम दिया जा रहा है।

अकादमिक शोध भी इस पैटर्न को समझाने की कोशिश करता है। आशुतोष वार्ष्णेय और स्टीवन विल्किंसन का अध्ययन बताता है कि जिन जिलों में मुस्लिम आबादी 20 प्रतिशत से अधिक होती है, वहां दंगे की संभावना तीन गुना बढ़ जाती है। साथ ही, जब हिंदू और मुस्लिम त्योहार एक ही दिन आते हैं, तो हिंसा की आशंका और बढ़ जाती है। भारत के 110 जिलों में मुस्लिम आबादी 20 प्रतिशत से ज्यादा है। यानी ये इलाके स्वाभाविक रूप से संवेदनशील हो जाते हैं। धुबरी तो इस परिभाषा में और भी गहराई से फिट बैठता है, जहाँ हिंदुओं की संख्या लगातार घट रही है और वे अपनी धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर असुरक्षित महसूस करने लगे हैं।

वस्‍तुत: यही पृष्ठभूमि बताती है कि मुख्यमंत्री हिमंता सरमा का फैसला केवल कानून-व्यवस्था का उपाय नहीं, बल्कि धुबरी के हिंदुओं को मनोवैज्ञानिक आश्वासन देने वाला कदम भी है। यह आदेश अल्पसंख्यक हिंदुओं को संदेश देता है कि राज्य सरकार उनके पर्वों और आस्था की रक्षा के लिए हर संभव कदम उठाएगी, चाहे वह कितना भी कठोर क्यों न हो।

विपक्ष इस आदेश को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास बता रहा है। कुछ मुस्लिम संगठनों ने इसे धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला कहकर विरोध जताया है। किंतु यह भी एक हकीकत है कि धुबरी जैसे जिलों में अगर हिंदू त्योहारों पर बार-बार हिंसा होती रहे और सरकार सिर्फ अपील करती रह जाए, तो इससे हिंदुओं के भीतर गहरी निराशा और भय पैदा होगा। ऐसे हालात में कठोर कदम ही विश्वास बहाल कर सकता है।

सवाल बरकरार है कि क्या अब हिंदुओं को हर त्योहार सुरक्षा के साये में ही मनाना पड़ेगा? क्या दुर्गा पूजा, रामनवमी और गणेशोत्सव अब केवल पुलिस बैरिकेड और सुरक्षा बलों की मौजूदगी में ही सुरक्षित रहेंगे? यह स्थिति न केवल त्योहारों की खुशी को कम करती है, बल्कि यह सामाजिक ताने-बाने की गहरी टूटन को भी दर्शाती है।

अब फैसले की आलोचना हो या समर्थन, एक तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि असम का यह आदेश धुबरी जैसे संवेदनशील जिलों में अल्पसंख्यक हिंदुओं के लिए सुरक्षा की ढाल है। यह केवल कानून-व्यवस्था का उपाय नहीं, बल्कि यह विश्वास दिलाने वाला संदेश है कि राज्य सरकार उनके साथ है। अगर समाज में दंगों का वायरस फैलने लगे, तो उसे रोकने के लिए कठोर दवा ही काम आती है।

कहना होगा कि सही अर्थों में व्‍यवहारिक धरातल पर मुख्यमंत्री हिमंता सरमा का यह निर्णय हिंदुओं की सुरक्षा और आस्था को संरक्षण देने वाला है। यह फैसला अभूतपूर्व है, लेकिन धुबरी जैसे हालात भी अभूतपूर्व हैं। ऐसे में यह आदेश केवल एक प्रशासनिक कदम नहीं, बल्कि धुबरी के अल्पसंख्यक हिंदुओं के लिए भरोसे की गारंटी है। मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा यहां यह संदेश भी देना चाहते हैं कि राज्य में कानून-व्यवस्था के साथ खिलवाड़ किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। फिर भी, व्यावहारिक स्तर पर इसका सबसे बड़ा लाभ धुबरी जैसे जिलों के हिंदू परिवारों को मिलने वाला है। उम्‍मीद करें कि वे अब अपने पर्व-त्योहार मनाने में भय महसूस नहीं करेंगे और यही इस आदेश की असली सफलता होगी।

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