बरेली, 3 अगस्त (हि.स.) । सावन की रुत भले ही झूम के आई और घनघोर घटाओं नें भिगोया, लेकिन अब पेड़ों पर झूले दिखाई नहीं देते हैं। हालांकि जब सावन माह आगमन के साथ ही गांव-गांव अमुआ की डाल पर झूला पड़ना आरंभ हो जाते थे। इस दौरान समूह में एकत्र महिलाएं सावन गीत गाकर श्रावण मास का स्वागत करती थीं। उन दिनों घर-घर मनभावन गीत गाए जाते थे मनभावन सावन गीतों की स्वर लहरियां नवविवाहित युवतियों में उत्साह का संचार करती थीं लेकिन अब आधुनिकता की चकाचौंध में प्राचीन परम्पराएं विलुप्त होती जा रही हैं।
सोशल मीडिया के दौर में मन को मोह लेने वाले सावन गीत मानों ओझल हो चुके है। सावन माह में बाग- बगीचों में पड़ने वाले सावन के झूलों की जगह अब घर के आंगन में रेडीमेड झूलों ने ले ली है। पूर्व में संयुक्त परिवार हुआ करते थे परिवार में बुजुर्गों की छत्र छाया और उनके सानिध्य में सभी परिवार के सदस्य एक दूसरे से जुड़े रहते थे। अब एकल होते परिवार और गांवों में एक दूसरे के बीच फैल रही वैमनस्यता ने तो आपसी तालमेल,भाईचारा एवं स्नेह को समाप्त कर झूला झूलने के रिवाज को ही खत्म कर दिया है। यूं कहें कि अब न तो पहले जैसे बाग-बगीचे रहे न मोर पपीहे और कोयल की मधुर बोली सुनने को मिलती है।
सावन माह एक एक दिन कर गुजरता जा रहा है हरियाली तीज के चंद दिन शेष बचे हैं लेकिन क्षेत्र में हरियाली तीज की उमंग दिखाई नहीं दे रही है जबकि एक जमाने में हरियाली तीज के आगमन को लेकर काफी समय पहले हाथों पर मेहंदी रचा कर महिलाएं खुशी का इजहार करती थीं प्रतियोगिताएं होती थीं। सावन की मल्हार नवयुवतियों में सामंजस्यता के बीज अंकुरित करती थी।अब हरियाली तीज का त्योहार भी धीरे-धीरे अपनी पहचान खोने लगा है। ऐसे में यह कहना ग़लत नहीं होगा कि भारतीय संस्कृति की असीम गहराइयों में रचे-बसे सावन के महीने और हरियाली तीज के आयोजन बे असर हो चले हैं मानो अब किसी को संस्कृति एवं परंपरा से कोई मतलब नहीं रह गया है। ऐसे में बुजुर्गों की पुरानी परंपराएं दम तोड़ती जा रही हैं जिन्हें जीवंत रखने के लिए युवा पीढ़ी को आगे आना चाहिए। ------------------------------------- बाग-बगीचे नष्ट होने के चलते सावन महीने में झूला झूलने की परंपरा धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। मानों आधुनिकता की चकाचौंध में हम पुरानी परंपराओं को भूलते जा रहे हैं।अब तो सावन गीत भी बेआवाज हो चले हैं। पिंकी विष्ट शिक्षिका ------------------------------------
वह भी एक दौर था जब महिलाएं सावन माह का बेसब्री से इंतजार करती थीं लेकिन आज भागम भाग भरी जिंदगी में सब कुछ मोबाइल तक ही सीमित होकर रह गया है। ऐसे कार्यक्रमों में सभी को बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी करनी चाहिए। उमेश चौहान स्वास्थ्य कर्मी ---------------------------------------- महिलाओं,नव युवतियों के उमंग और उत्साह से जुड़ी सावन माह में झूला झूलने एवं हरियाली तीज की परंपरा की रंगत साल दर साल फींकी पड़ती जा रही है। सावन में झूला झूलने की पुरानी परंपरा को जीवंत रखने में नारी शक्ति को सक्रिय भागीदारी निभानी चाहिए। ममता गंगवार गृहिणी ------------------------------------ सावन में झूला झूलने की प्रथा धीरे-धीरे समाप्त सी हो गई है। इसके पीछे समय का अभाव भी है साथ ही अब रूचि भी कम होती जा रही है।बाग बगीचे भी नहीं रहे जो आम की डाल पर झूले डाले जाएं।अब तो सब कुछ फटाफट वाला हो गया है। नीतू रानी गंगवार गृहिणी